कश्मीर में क्या अनुच्छेद 370 हटाना ही एकमात्र विकल्प था?- नज़रिया
जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया गया है. सरकार के इस फ़ैसले ने देश-दुनिया को चौंकाया है.
इस फ़ैसले के साथ ही जम्मू-कश्मीर को दो भागों में बांट दिया गया. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख. दोनों केंद्र शासित प्रदेश होंगे.
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद सरकार के इस फ़ैसले की कोई प्रशंसा कर रहा है तो कोई आलोचना. विरोध करने वाले सवाल कर रहे हैं कि क्या अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने से कश्मीर समस्या का समाधान हो गया है?
मैं नहीं मानता कि समाधान इतना सहज है. अगर ऐसा होता तो इसे बहुत पहले ही ख़त्म कर दिया जाता, लेकिन ये ज़रूर है कि अनुच्छेद 370 और 35-ए हटाने की बात सत्ताधारी पार्टी की सरकार बहुत पहले से कर रही थी.
कश्मीर की स्थिति में एक ठहराव सा आ गया था. न कोई बात आगे बढ़ती थी और न कोई बात पीछे जाती थी. कुछ मायनों में सत्ताधारी पार्टी का समझना है कि 370 के हटाने से बहुत सारे मामले खुद ब खुद ख़त्म हो जाएंगे.
जगमोहन साब ने अपनी किताब 'माय फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर' में भी इस बात का जिक्र किया है और मुझे लगता है कि इस बात में दम है.
लेकिन सवाल यह भी किया जा रहा है कि क्या 370 हटाना ही सरकार के पास अंतिम विकल्प था?
इतिहास के देखें तो कई दूसरे रास्ते अपनाए गए थे. जैसे, दो मुल्कों के बीच 2007-08 तक जो बातचीत हुई थी, उस वक़्त कश्मीर समस्या के हल होने की संभावना दिखी थी.
लेकिन उसके बाद से पाकिस्तान पीछे हट गया और सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. जब तक सीमा पार से आतंकवाद बंद नहीं होता है, दूसरा कोई विकल्प समझ नहीं आ रहा था.
सवाल यह भी किया जा रहा है कि फ़ैसले के बाद कश्मीरियों की स्थिति कमजोर हुई है.
मैं मानता हूं कि इस फ़ैसले से स्थानीय नेताओं की स्थिति ज़रूर कमजोर हुई है. भविष्य में वो निष्क्रिय हो सकते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वहां के आम लोग, जो भारत का समर्थन करते हैं, वो अलग-थलग पड़ जाएंगे पर मैं ऐसा नहीं मानता हूं. मैं इस मामले में निराशावादी नहीं हूं.
मैं समझता हूं कि कश्मीरी के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि इसमें उनकी भलाई है. शायद वो वक़्त के साथ समझ भी जाएंगे.
वहां आतंकवाद से जुड़ी कई समस्याएं रही हैं. कितने युवा मारे गए हैं. ऐसे में कश्मीर की माएं यह बात समझती हैं कि उनके बच्चों को हताशवाद की स्थिति से यह फ़ैसला निकाल पाएगा.
इस फ़ैसले के साथ ही जम्मू-कश्मीर को दो भागों में बांट दिया गया. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख. दोनों केंद्र शासित प्रदेश होंगे.
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद सरकार के इस फ़ैसले की कोई प्रशंसा कर रहा है तो कोई आलोचना. विरोध करने वाले सवाल कर रहे हैं कि क्या अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने से कश्मीर समस्या का समाधान हो गया है?
मैं नहीं मानता कि समाधान इतना सहज है. अगर ऐसा होता तो इसे बहुत पहले ही ख़त्म कर दिया जाता, लेकिन ये ज़रूर है कि अनुच्छेद 370 और 35-ए हटाने की बात सत्ताधारी पार्टी की सरकार बहुत पहले से कर रही थी.
कश्मीर की स्थिति में एक ठहराव सा आ गया था. न कोई बात आगे बढ़ती थी और न कोई बात पीछे जाती थी. कुछ मायनों में सत्ताधारी पार्टी का समझना है कि 370 के हटाने से बहुत सारे मामले खुद ब खुद ख़त्म हो जाएंगे.
जगमोहन साब ने अपनी किताब 'माय फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर' में भी इस बात का जिक्र किया है और मुझे लगता है कि इस बात में दम है.
लेकिन सवाल यह भी किया जा रहा है कि क्या 370 हटाना ही सरकार के पास अंतिम विकल्प था?
इतिहास के देखें तो कई दूसरे रास्ते अपनाए गए थे. जैसे, दो मुल्कों के बीच 2007-08 तक जो बातचीत हुई थी, उस वक़्त कश्मीर समस्या के हल होने की संभावना दिखी थी.
लेकिन उसके बाद से पाकिस्तान पीछे हट गया और सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. जब तक सीमा पार से आतंकवाद बंद नहीं होता है, दूसरा कोई विकल्प समझ नहीं आ रहा था.
सवाल यह भी किया जा रहा है कि फ़ैसले के बाद कश्मीरियों की स्थिति कमजोर हुई है.
मैं मानता हूं कि इस फ़ैसले से स्थानीय नेताओं की स्थिति ज़रूर कमजोर हुई है. भविष्य में वो निष्क्रिय हो सकते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वहां के आम लोग, जो भारत का समर्थन करते हैं, वो अलग-थलग पड़ जाएंगे पर मैं ऐसा नहीं मानता हूं. मैं इस मामले में निराशावादी नहीं हूं.
मैं समझता हूं कि कश्मीरी के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि इसमें उनकी भलाई है. शायद वो वक़्त के साथ समझ भी जाएंगे.
वहां आतंकवाद से जुड़ी कई समस्याएं रही हैं. कितने युवा मारे गए हैं. ऐसे में कश्मीर की माएं यह बात समझती हैं कि उनके बच्चों को हताशवाद की स्थिति से यह फ़ैसला निकाल पाएगा.
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